BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?

अथवा
अधिकरण के भेदों का निरूपण कीजिए।

उत्तर -

संस्कृत व्याकरण के अनुसार अधिकरण के तीन भेद हैं-

१. औपश्लेषिक - उपश्लेष का अर्थ है संयोगादि सम्बन्ध। जहाँ कर्ता अथवा कर्म आधार में संयोग आदि से रहते हैं वहाँ औपश्लेषिक अधिकरण होता है। जैसे - करे आस्ते अर्थात् चटाई पर बैठता है यहाँ कर्ता का चटाई से संयोग माना है अतः औपश्लेषिक आधार है। इसी प्रकार स्थाल्यां पचति अर्थात् देकची में पकाता है।

२. वैषयिक - विषय से सम्बन्धित होने वाला आधार वैषयिक है। जैसे मोक्षे इच्छास्ति अर्थात् मोक्ष में इच्छा है। यहाँ कर्ता के साथ मोक्ष का विषयगत सम्बन्ध है अतः वैषयिक अधिकरण है।

३. अभिव्यापक - जब कोई वस्तु सभी अवयवों में व्याप्त हो तो अभिव्यापक अधिकरण होता है। उदाहरणार्थ - तिलेषु तैलम् अर्थात् तिलों में तेल है। यहाँ तिल अवयव है और तेल सथी है। यही कारण है कि यहाँ अभिव्यापक अधिकरण है। इसी प्रकार - सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति।

४. कर्तुरीप्सिततमं कर्म - कर्तुः क्रियया आप्तुं इष्टतमं कारकं कर्म संज्ञं स्यात् अर्थात् जो कर्ता की क्रिया द्वारा उसे सर्वाधिक अभीष्ट होता है उसकी कर्म संज्ञा होती है। यदि कोई पदार्थ कर्म आदि को अभीष्ट हो और कर्ता को अभीष्ट न हो तो उसकी कर्म संज्ञा नहीं होगी। उदाहरणार्थ- मासेष्श्वं बध्नाति अर्थात् उड़दों में घोड़े को बांधता है। यहाँ उड़द कर्म को अभीष्ट है जबकि कर्ता का अभीष्ट कार्य घोड़े को बांधना है। घोड़ा कर्म है उड़द उसे अभीष्ट है क्योंकि वह उन्हें खाना चाहता है किन्तु कर्ता का अभीष्ट मात्र अश्व है अतः उड़द कर्मसंज्ञक नहीं है मात्र अश्व ही कर्मसंज्ञक है।

५. कर्मणि द्वितीया - अनुक्ते कर्मणि द्वितीयास्यात् अर्थात् अनुक्त कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जिस वाच्य में क्रिया से प्रत्यय होता है वह अर्थ उक्त होता है जबकि अन्य अर्थ अनुक्त होता है। उदाहरणार्थ, कर्तृवाच्य में प्रत्यय होगा तो कर्ता उक्त होगा तथा भाव एवं कर्म अनुक्त होंगे। जैसे - हरिं भजति अर्थात् हरि को भजता है। यहाँ 'भजति क्रिया है, यह कर्तृवाच्य में है। यहाँ कर्म अनुक्त है अतः द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने के पूर्व 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' सूत्र से कर्ता के कर्म की कर्म संज्ञा होती है तत्पश्चात् कर्मणि द्वितीया से द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।

६. अकथित च - अपादानादि विशेषैरविवक्षितं कारकं कर्मसंज्ञंस्यात् अर्थात् अपादान आदि विशेष रूपों से अविवक्षित कारक कर्मसंज्ञक होता है। तात्पर्य यह है कि हम जिस कारक की सम्प्रदान, करण, अपादान एवं अधिकरण आदि संज्ञा न करना चाहें उसकी कर्म संज्ञा हो जाती है। इस सूत्र से जो कर्म बनता है उसे गौण या अप्रधान कर्म कहते हैं तथा 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' जो कर्म होता है वह प्रधान कर्म कहलाता है। जिन धातुओं में दो कर्म होते हैं उन्हीं में सूत्र प्रभावी होता है। उदाहरण- मोहनः रामं मार्ग पृच्छति। (मोहन राम से आगे पूछता है)

७. स्वतंत्र - कर्ता क्रियायां स्वातन्त्रङ्गेण विवक्षितोऽर्थः कर्ता स्यात् अर्थात् क्रिया में स्वतंत्रता से विवक्षित् पदार्थ कर्ता कहलाता है। वस्तुतः कारक विवक्षा के अधीन हैं- 'विवक्षातः कारकाणि भवन्ति' इस प्रकार क्रिया का आश्रय कर्ता है। कर्ता जड़ भी हो सकता है और चेतन भी।

८. साधकतमंकरणम् - क्रिया सिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं करणसंज्ञंस्यात् अर्थात् क्रिया की सिद्धि में जो कारक सर्वाधिक सहायक होता है उसकी करण संज्ञा होती है। जिसके उद्योग या व्यापार के पश्चात् क्रिया की सिद्धि होती है उसे अत्यन्त सहायक कारक कहते हैं। उदाहरणार्थ 'रामेण बाणेन हतो बाली' अर्थात् राम ने बाण से बालि को मारा। यहाँ बाण की क्रिया या सहायता से ही राम ने बालि को मारा। अतः बाण की करण संज्ञा होती है।

६. कर्तृ - करणयोस्तृतीया अनभिहितेकर्तरिकरणेच तृतीया स्यात् अर्थात् अनुक्तकर्ता एवं करण में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। अनुक्तकर्ता कर्मवाच्य में होता है इसलिए अनुक्तकर्ता में भी तृतीया विभक्ति हो जाती है जबकि करण संज्ञक तो तृतीया विभक्ति में होता ही है। उदाहरणार्थ- रामेण बाणेन हतो बाली अर्थात् राम ने बाण से बालि को मारा।

१०. येनङ्गविकार - येन अङ्गेन विकृतेनाङ्गिनो विकारोलक्ष्यते ततस्तृतीया स्यात् अर्थात् जिस अंग से अङ्गी का विकार लक्षित होता है उसी अंग के वाचक शब्द से तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ- अक्ष्णा काण: अर्थात् आंख से काना है।

११. कर्मणा यमभिप्रैतिस सम्प्रदानम् - दानस्य कर्मणा यं अभिप्रैति से सम्प्रदान संज्ञं स्यात् अर्थात् दान कर्म के द्वारा कर्ता जिसे उद्देश्य बनाता है उसे सम्प्रदान कहते हैं।

 

१२. चतुर्थी सम्प्रदाने - सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। चतुर्थी विभक्ति आने के पूर्व 'कर्मणा यमथिप्रैति स सम्प्रदानम्' से सम्प्रदान संज्ञा करनी पड़ती है। इसके पश्चात् सम्प्रदान संज्ञक पद से चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरणार्थ - विप्राय गां ददाति अर्थात् विप्र को गाय देता है। यहाँ विप्र दान कर्त्ता को अभीष्ट अतः उसके पहले सम्प्रदान संज्ञा होती है और पुनः उसमें चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

१३. नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधाडलं वषड्योगाच्च - एथिर्योगे चतुर्थी स्यात् अर्थात् नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलं तथा वषट् आदि शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ - हरये नमः अर्थात् हरि को नमस्कार है। यहाँ 'नमः' शब्द का प्रयोग हरि के निमित्त किया गया है अतः नमः के योग में हरि शब्द से चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

१४. ध्रुवमपायेडपादानम् - अपायोविश्लेषस्तस्मिन्साध्ये ध्रुवमवधिभूतं कारकम्पादानं स्यात् अर्थात् अपाय का अर्थ है विश्लेष या अलगाव जबकि ध्रुव का अर्थ है सीमा रूप। किसी वस्तु के अलगाव में जो कारक ध्रुव या सीमा रूप है उस सीमा रूप की अपादान संज्ञा होती है।

१५. अपादाने पञ्चमी - अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। तात्पर्य यह है कि जब भी किसी शब्द से पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है तो उसके पूर्व उसकी अपादान संज्ञा 'ध्रुवमपायेडषादानम्' सूत्र से होती है।

१६. षष्ठी शेषे - कारक प्रातिपदिकार्थ व्यतिरिक्तः स्वस्वामीभाव आदि सम्बन्धः शेषस्तत्र षष्ठी स्यात्। अर्थात् कारक एवं प्रातिपदिक आदि से भिन्न शेष 'स्व' अपनी वस्तु एवं स्वामी आदि के सम्बन्ध को शेष कहते हैं। आचार्य पाणिनि ने छः कारक बताए हैं - कर्ता, कर्म, कारण, सम्प्रदान, अपादान एवं अधिकरण' और शेष का अर्थ है कारक एवं प्रातिपदिक से बचा हुआ जो भी है। उसमें षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

१७. आधारोडधिकरणम् - कर्तृ कर्म द्वारा तन्निष्ठ क्रियायाः आधारः कारकं अधिकरण संज्ञं स्यात्। अर्थात् कर्ता एवं कर्म के द्वारा उनमें स्थित क्रिया का आधार अधिकरण कहलाता है। वस्तुतः अधिकरण क्रिया का साक्षात् आधार नहीं होता है अपितु एवं कर्ता कर्म के द्वारा वह कर्ता अथवा कर्म का आधार होता है और क्रिया कर्ता अथवा कर्म में ही रहती है।

१८. सप्तम्यधिकरणेय - अधिकरणे सप्तमी स्यात् अर्थात् अधिकरण में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। अधिकरण तीन प्रकार का होता है-

(क) औपश्लेषिक - इसका अर्थ है संयोग सम्बन्ध से रहने वाला। जहाँ कर्ता अथवा कर्म आधार में संयोग आदि सम्बन्ध से रहते हैं वहाँ औपश्लेषिक आधार होता है उदाहरणार्थ करे आस्ते अर्थात् चटाई पर बैठता है। यहाँ चटाई का आधार संयोगप्राय है यही अधिकरण है अतः इसमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है।

(ख) वैषयिक - विषय का सम्बन्ध होने से होने वाला आधार वैषयिक कहलाता है। उसका कर्ता के साथ बौद्धिक सम्बन्ध होता है उदाहरणार्थ- मोक्षेइच्छाऽस्ति अर्थात् मोक्ष में इच्छा है। यहाँ मोक्ष बौद्धिक विषय है यही वैषयिक आधार है। इसकी अधिकरण संज्ञा होकर इसमें सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।

(ग) अथिव्यापक - यह वह आधार है जिसमें कोई वस्तु सब अवयवों में व्याप्त रहती है। उदाहरणार्थ - तितेषुतैलम् अर्थात् तिलों में तैल है। यहाँ तैल का आधार तिल है और प्रत्येक तिल में तैल है जो कि व्यापकता का बोधक है। अतः यहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है इसी प्रकार-

सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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